Fathers Day Hindi Poems: अपने पिता को ऐसे कराएं प्यार का एहसास, सुनाएं उन्हें भावुक कविता

13 Jun, 2024
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Fathers Day Hindi Poems: फादर्स डे पिता के प्रति प्यार, सम्मान और आभार जताने के लिए मनाया जाता है। फादर्स ड वह दिन है जिसके माध्यम से आप अपने पिता को उनके त्याग और समर्पण के लिए शुक्रिया कह सकते हैं। इस साल 16 जून 2024 फादर्स डे मनाया जाएगा। अपने दिल की बात कम शब्दों में और गहराई से कहने के लिए कविता बहुत अच्छा माध्यम हैं। आप अपने पिता को कोई अच्छी सी कविता सुना कर उन्हें थैंक्स कह सकते हैं। 

1 . कविता- ओम व्यास

पिता जीवन है, संबल है, शक्ति है
पिता सृष्टि के निर्माण की अभिव्यक्ति है
पिता उंगली पकड़े बच्चे का सहारा है
पिता कभी कुछ खट्टा, कभी खारा है
पिता पालन है, पोषण है, पारिवार का अनुशासन है
पिता धौंस से चलने वाला प्रेम का प्रशासन है
पिता रोटी है, कपड़ा है, मकान है
पिता छोटे से परिंदे का बड़ा आसमान है
पिता अपदर्शित अनन्त प्यार है
पिता है तो बच्चों को इंतजार है
पिता से ही बच्चों के ढेर सारे सपने हैं
पिता है तो बाज़ार के सब खिलौने अपने हैं
पिता से परिवार में प्रतिपल राग है
पिता से ही माँ का बिंदी और सुहाग है
पिता परमात्मा की जगत के प्रति आसक्ति है
पिता गृहस्थ आश्रम में उच्च स्थिति की भक्ति है
पिता अपनी इच्छाओं का हनन और परिवार की पूर्ति है
पिता रक्त में दिये हुए संस्कारों की मूर्ति है
पिता एक जीवन को जीवन का दान है
पिता दुनिया दिखाने का अहसान है
पिता सुरक्षा है, सिर पर हाथ है
पिता नहीं तो बचपन अनाथ है
तो पिता से बड़ा तुम अपना नाम करो
पिता का अपमान नहीं, उन पर अभिमान करो
क्योंकि मां­ बाप की कमी कोई पाट नहीं सकता
और ईश्वर भी इनके आशीषों को काट नहीं सकता
विश्व में किसी भी देवता का स्थान दूजा है
मां ­बाप की सेवा ही सबसे बड़ी पूजा है
विश्व में किसी भी तीर्थ की यात्राएं व्यर्थ हैं
यदि बेटे के होते मां ­बाप असमर्थ हैं
वो खुशनसीब हैं मां­ बाप जिनके साथ होते हैं
क्योंकि मां ­बाप की आशीषों के हज़ारों हाथ होते हैं


2 . कविता 


जब मम्मी डाँट रहीं थी
तो
कोई चुपके से हँसा रहा था,
वो थे पापा. . .
जब मैं सो रहा था
तब कोई चुपके से
सिर पर हाथ फिरा रहा था ,
वो थे पापा. . .
जब मैं सुबह उठा तो
कोई बहुत थक कर भी
काम पर जा रहा था ,
वो थे पापा. . .
खुद कड़ी धूप में रह कर
कोई मुझे ए.सी. में
सुला रहा था,
वो थे पापा. . .
सपने तो मेरे थे
पर उन्हें पूरा करने का
रास्ता कोई और बताऐ
जा रहा था ,
वो थे पापा. . .
मैं तो सिर्फ अपनी खुशियों में
हँसता हूँ,
पर मेरी हँसी देख कर
कोई अपने गम
भुलाऐ जा रहा था ,
वो थे पापा. . .
फल खाने की
ज्यादा जरूरत तो उन्हें थी,
पर कोई मुझे सेब खिलाए
जा रहा था ,
वो थे पापा. . .
खुश तो मुझे होना चाहिए
कि वो मुझे मिले ,
पर मेरे जन्म लेने की
खुशी कोई और मनाए
जा रहा था ,
वो थे पापा.
ये दुनिया पैसों से चलती है
पर कोई सिर्फ मेरे लिए
पैसे कमाए
जा रहा था ,
वो थे पापा.
घर में सब अपना प्यार दिखाते हैं
पर कोई बिना दिखाऐ भी
इतना प्यार किए
जा रहा था ,
वो थे पापा. . .
पेड़ तो अपना फल
खा नही सकते
इसलिए हमें देते हैं…
पर कोई अपना पेट
खाली रखकर भी मेरा पेट
भरे जा रहा था ,
वो थे पापा. . .
मैं तो नौकरी के लिए
घर से बाहर जाने पर दुखी था
पर मुझसे भी अधिक आंसू
कोई और बहाए
जा रहा था ,
वो थे पापा. . .
मैं अपने “बेटा” शब्द को
सार्थक बना सका या नही..
पता नहीं…
पर कोई बिना स्वार्थ के
अपने “पिता” शब्द को
सार्थक बनाए
जा रहा था ,
वो थे पापा!

 

3. कविता- दिवंगत पिता के प्रति, कवि-  सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

सूरज के साथ-साथ
सन्ध्या के मंत्र डूब जाते थे,
घंटी बजती थी अनाथ आश्रम में
भूखे भटकते बच्चों के लौट आने की,
दूर-दूर तक फैले खेतों पर,
धुएँ में लिपटे गाँव पर,
वर्षा से भीगी कच्ची डगर पर,
जाने कैसा रहस्य भरा करुण अन्धकार फैल जाता था,
और ऐसे में आवाज़ आती थी पिता
तुम्हारे पुकारने की,
मेरा नाम उस अंधियारे में
बज उठता था, तुम्हारे स्वरों में।
मैं अब भी हूँ
अब भी है यह रोता हुआ अन्धकार चारों ओर
लेकिन कहाँ है तुम्हारी आवाज़
जो मेरा नाम भरकर
इसे अविकल स्वरों में बजा दे।
'धक्का देकर किसी को
आगे जाना पाप है'
अत: तुम भीड़ से अलग हो गए।
'महत्वाकांक्षा ही सब दुखों का मूल है'
इसलिए तुम जहाँ थे वहीं बैठ गए।
'संतोष परम धन है'
मानकर तुमने सब कुछ लुट जाने दिया।
पिता! इन मूल्यों ने तो तुम्हें
अनाथ, निराश्रित और विपन्न ही बनाया,
तुमसे नहीं, मुझसे कहती है,
मृत्यु के समय तुम्हारे
निस्तेज मुख पर पड़ती यह क्रूर दारूण छाया।
'सादगी से रहूँगा'
तुमने सोचा था
अत: हर उत्सव में तुम द्वार पर खड़े रहे।
'झूठ नहीं बोलूँगा'
तुमने व्रत लिया था
अत:हर गोष्ठी में तुम चित्र से जड़े रहे।
तुमने जितना ही अपने को अर्थ दिया
दूसरों ने उतना ही तुम्हें अर्थहीन समझा।
कैसी विडम्बना है कि
झूठ के इस मेले में
सच्चे थे तुम
अत:वैरागी से पड़े रहे।
तुम्हारी अन्तिम यात्रा में
वे नहीं आए
जो तुम्हारी सेवाओं की सीढ़ियाँ लगाकर
शहर की ऊँची इमारतों में बैठ ग थे,
जिन्होंने तुम्हारी सादगी के सिक्कों से
भरे बाजार भड़कीली दुकानें खोल रक्खी थीं;
जो तुम्हारे सदाचार को
अपने फर्म का इश्तहार बनाकर
डुगडुगी के साथ शहर में बाँट रहे थे।
पिता! तुम्हारी अन्तिम यात्रा में वे नहीं आए
वे नहीं आए

 

4. कविता - स्वाभिमान है पिता

कभी अभिमान तो कभी स्वाभिमान है पिता,
कभी धरती तो कभी आसमान है पिता…
जन्म दिया है अगर माँ ने,
जानेगा जिससे जग वो पहचान है पिता…
कभी कंधे पे बिठाकर मेला दिखता है पिता,
कभी बनके घोड़ा घुमाता है पिता…
माँ अगर मैरों पे चलना सिखाती है,
तो पैरों पे खड़ा होना सिखाता है पिता…
कभी रोटी तो कभी पानी है पिता,
कभी बुढ़ापा तो कभी जवानी है पिता…
माँ अगर है मासूम सी लोरी,
तो कभी ना भूल पाऊंगा वो कहानी है पिता…
कभी ख़्वाब को पूरी करने की जिम्मेदारी है पिता,
कभी आंसुओं में छिपी लाचारी है पिता…
माँ अगर बेच सकती है जरुरत पे गहने,
तो जो अपने को बेच दे वो व्यापारी है पिता…
कभी हंसी और खुशी का मेला है पिता,
कभी कितना तन्हा और अकेला है पिता…
माँ तो कह देती है अपने दिल की बात,
सब कुछ समेट के आसमान सा फैला है पिता…

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