World Poetry Day 2025: कविताओं में ताकत होती है शब्दों की चोटों से समाज की नींव को हिला सके। कविता के माध्यम से कम शब्दों में गहरी बात कह सकते हैं। हर साल 21 मार्च को विश्व कविता दिवस मनाया जाता है। इस दिन को मनाने का उद्देश्य कविता के महत्व को समझना और कवियों को सम्मान करना है। कविताओं से युवाओं को प्रेरणा मिलती है ताकि वह अपने जीवन की दिशा बदल सकें और समाज निर्माण में अपनी अहम भूमिका निभा सकें। विश्व कविता दिवस पर पढ़ें युवाओं को प्रेरणा देने वाली महान कवियों की यह कविताएं।
कविता - आशा का दीपक
कवि - रामधारी सिंह 'दिनकर'
यह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल दूर नहीं है
थक कर बैठ गये क्या भाई मंजिल दूर नहीं है
चिंगारी बन गयी लहू की बून्द गिरी जो पग से
चमक रहे पीछे मुड़ देखो चरण-चिन्ह जगमग से
शुरू हुई आराध्य भूमि यह क्लांत नहीं रे राही;
और नहीं तो पांव लगे हैं क्यों पड़ने डगमग से
बाकी होश तभी तक, जब तक जलता तूर नहीं है
थक कर बैठ गये क्या भाई मंजिल दूर नहीं है
अपनी हड्डी की मशाल से हृदय चीरते तम का,
सारी रात चले तुम दुख झेलते कुलिश निर्मम का।
एक खेप है शेष, किसी विध पार उसे कर जाओ;
वह देखो, उस पार चमकता है मन्दिर प्रियतम का।
आकर इतना पास फिरे, वह सच्चा शूर नहीं है;
थककर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है।
दिशा दीप्त हो उठी प्राप्त कर पुण्य-प्रकाश तुम्हारा,
लिखा जा चुका अनल-अक्षरों में इतिहास तुम्हारा।
जिस मिट्टी ने लहू पिया, वह फूल खिलाएगी ही,
अम्बर पर घन बन छाएगा ही उच्छ्वास तुम्हारा।
और अधिक ले जांच, देवता इतना क्रूर नहीं है।
थककर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है।
कविता - नर हो, न निराश करो मन को
कवि - -मैथिलीशरण गुप्त
नर हो, न निराश करो मन को
कुछ काम करो, कुछ काम करो
जग में रहकर कुछ नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो, न निराश करो मन को
संभलों कि सुयोग न जाय चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलंबन को
नर हो, न निराश करो मन को
जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ
फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो
उठके अमरत्व विधान करो
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को
निज़ गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे
मरणोंत्तर गुंजित गान रहे
सब जाय अभी पर मान रहे
कुछ हो न तज़ो निज साधन को
नर हो, न निराश करो मन को
प्रभु ने तुमको दान किए
सब वांछित वस्तु विधान किए
तुम प्राप्त करो उनको न अहो
फिर है यह किसका दोष कहो
समझो न अलभ्य किसी धन को
नर हो, न निराश करो मन को
किस गौरव के तुम योग्य नहीं
कब कौन तुम्हें सुख भोग्य नहीं
जान हो तुम भी जगदीश्वर के
सब है जिसके अपने घर के
फिर दुर्लभ क्या उसके जन को
नर हो, न निराश करो मन को
करके विधि वाद न खेद करो
निज़ लक्ष्य निरन्तर भेद करो
बनता बस उद्यम ही विधि है
मिलती जिससे सुख की निधि है
समझो धिक् निष्क्रिय जीवन को
नर हो, न निराश करो मन को
कुछ काम करो, कुछ काम करो…
कविता - क़दम मिलाकर चलना होगा
कवि - अटल बिहारी वाजपेयी
बाधाएँ आती हैं आएँ
घिरें प्रलय की घोर घटाएँ,
पावों के नीचे अंगारे,
सिर पर बरसें यदि ज्वालाएँ,
निज हाथों में हँसते-हँसते,
आग लगाकर जलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।
हास्य-रूदन में, तूफ़ानों में,
अगर असंख्यक बलिदानों में,
उद्यानों में, वीरानों में,
अपमानों में, सम्मानों में,
उन्नत मस्तक, उभरा सीना,
पीड़ाओं में पलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।
उजियारे में, अंधकार में,
कल कहार में, बीच धार में,
घोर घृणा में, पूत प्यार में,
क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,
जीवन के शत-शत आकर्षक,
अरमानों को ढलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।
सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ,
प्रगति चिरंतन कैसा इति अब,
सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,
असफल, सफल समान मनोरथ,
सब कुछ देकर कुछ न मांगते,
पावस बनकर ढलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।
कुछ काँटों से सज्जित जीवन,
प्रखर प्यार से वंचित यौवन,
नीरवता से मुखरित मधुबन,
परहित अर्पित अपना तन-मन,
जीवन को शत-शत आहुति में,
जलना होगा, गलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।
कविता - मन जहां डर से परे है
कवि - रवींद्रनाथ टैगोर
मन जहां डर से परे है और सिर जहां ऊंचा है;
ज्ञान जहां मुक्त है और जहां दुनिया को
संकीर्ण घरेलू दीवारों से छोटे छोटे टुकड़ों में बांटा नहीं गया है;
जहां शब्द सच की गहराइयों से निकलते हैं, जहां थकी हुई प्रयासरत बांहें
त्रुटि हीनता की तलाश में हैं, जहां कारण की स्पष्ट धारा है
जो सुनसान रेतीले मृत आदत के,वीराने में अपना रास्ता खो नहीं चुकी है;
जहां मन हमेशा व्यापक होते विचार और सक्रियता में, तुम्हारे जरिए आगे चलता है
और आजादी के स्वर्ग में पहुंच जाता है,ओ पिता परमेश्वर
मेरे देश को जागृत बनाओ