International Women's Day 2025: महिलाओं के अधिकार, संघर्ष, सम्मान और सशक्तिकरण को दर्शाती प्रेरणादायक कविताएं

08 Mar, 2025
International Women's Day 2025: महिलाओं के अधिकार, संघर्ष, सम्मान और सशक्तिकरण को दर्शाती प्रेरणादायक कविताएं

International Women's Day 2025: अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस हर साल 8 मार्च को मनाया जाता है। यह दिन महिलाओं के अधिकारों और सम्मान के लिए मनाया जाता है। महिलाएं समाज का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। यह दिन समाज में उनकी भूमिका और महत्व को उजागर करने का दिन है। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर महिलाओं के अधिकार, संघर्ष, सम्मान और सशक्तिकरण को दर्शाती प्रेरणादायक कविताएं पढ़ सकते है और लोगों को सुना सकते हैं।

कवि - सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला

कविता - तोड़ती पत्थर

वह तोड़ती पत्थर;
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर
 
वह तोड़ती पत्थर।
कोई न छायादार
 
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;
श्याम तन, भर बँधा यौवन,
 
नत नयन प्रिय, कर्म-रत मन,
गुरु हथौड़ा हाथ,
 
करती बार-बार प्रहार 
सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार।
 
चढ़ रही थी धूप;
गर्मियों के दिन
 
दिवा का तमतमाता रूप;
उठी झुलसाती हुई लू,
 
रुई ज्यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगीं छा गईं,
 
प्राय: हुई दुपहर
वह तोड़ती पत्थर।
 
देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;
 
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
 
जो मार खा रोई नहीं,
सजा सहज सितार,
 
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार
एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,
 
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा
‘मैं तोड़ती पत्थर।’

कवि - सुमित्रानंदन पंत

कविता - नारी

हाय, मानवी रही न नारी लज्जा से अवगुंठित,
वह नर की लालस प्रतिमा, शोभा सज्जा से निर्मित!
 
युग युग की वंदिनी, देह की कारा में निज सीमित,
वह अदृश्य अस्पृश्य विश्व को, गृह पशु सी ही जीवित!
 
सदाचार की सीमा उसके तन से है निर्धारित,
पूत योनि वह: मूल्य चर्म पर केवल उसका अंकित;
 
अंग अंग उसका नर के वासना चिह्न से मुद्रित,
वह नर की छाया, इंगित संचालित, चिर पद लुंठित!
 
वह समाज की नहीं इकाई,–शून्य समान अनिश्चित,
उसका जीवन मान मान पर नर के है अवलंबित।
 
मुक्त हृदय वह स्नेह प्रणय कर सकती नहीं प्रदर्शित,
दृष्टि, स्पर्श संज्ञा से वह होजाती सहज कलंकित!
 
योनि नहीं है रे नारी, वह भी मानवी प्रतिष्ठित,
उसे पूर्ण स्वाधीन करो, वह रहे न नर पर अवसित।
 
द्वन्द्व क्षुधित मानव समाज पशु जग से भी है गर्हित,
नर नारी के सहज स्नेह से सूक्ष्म वृत्ति हों विकसित।
 
आज मनुज जग से मिट जाए कुत्सित, लिंग विभाजित
नारी नर की निखिल क्षुद्रता, आदिम मानों पर स्थित।
 
सामूहिक-जन-भाव-स्वास्थ्य से जीवन हो मर्यादित,
नर नारी की हृदय मुक्ति से मानवता हो संस्कृत।
 

कवि - पुष्यमित्र उपाध्याय

कविता - सुनो द्राैपदी ! शस्त्र उठालो

सुनो द्राैपदी ! शस्त्र उठालो अब गोविंद ना आएंगे...
छोड़ो मेहंदी खड्ग संभालो
खुद ही अपना चीर बचा लो
द्यूत बिछाए बैठे शकुनि,
मस्तक सब बिक जाएंगे
सुनो द्राैपदी ! शस्त्र उठालो अब गोविंद ना आएंगे...
कब तक आस लगाओगी तुम, बिक़े हुए अखबारों से
कैसी रक्षा मांग रही हो दुःशासन दरबारों से
स्वयं जो लज्जाहीन पड़े हैं
वे क्या लाज बचाएंगे
सुनो द्राैपदी ! शस्त्र उठालो अब गोविंद ना आएंगे...
कल तक केवल अंधा राजा, अब गूंगा-बहरा भी है
होंठ सिल दिए हैं जनता के, कानों पर पहरा भी है
तुम ही कहो ये अंश्रु तुम्हारे,
किसको क्या समझाएंगे?
सुनो द्राैपदी ! शस्त्र उठालो अब गोविंद ना आएंगे...
 

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